स्वामी विवेकानन्द (1863-1902)
जन्म:- 12 जनवरी 1863 (मकर संक्रान्ति), कलकत्ता
शिक्षा:- स्कूल ईश्वरचंद विद्यासागर ,स्नातक (कला) प्रेसीडेन्सी कॉलेज कोलकत्ता (1884)
जीवन परिचय:-स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन 1863 (मकरसंक्रांति) को कलकत्ता में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम वीरेश्वर तथा औपचारिक नाम नरेन्द्रदत्त था। उनके पिता विश्वनाथदत्त कलकत्ता हाईकोर्ट में एक प्रसिद्ध वकील थे। उनकी मॉं भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली थी उनकी अधिकांश समय पूजा-अर्चना में ही व्यतीत होता था। प्रारंभिक जीवन में नरेन्द्र चंचल प्रवृत्ति के थे। उन्हें बचपन में रामयण, महाभारत, पुराण आदि को सुनने का बडा शौक था। उनके घर पर प्रारंभ से ही धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण था। किशोरावस्था से पूर्व ही उनके मन में ईश्वर को जानने की जिज्ञासा बढने लगी थी।
नरेन्द्रदत्त की प्रारंभिक शिक्षा घर पर इसके पश्चात उन्होने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया जहॉं वे स्कूल गये। उन्होने प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया और वहॉं से कला में स्नातक की उपाधि प्राप्त की । इसके अलावा उन्होंने धर्म, दर्शन, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, साहित्य सहित कई पुस्तकों का अध्ययन किया। उन्होंने शास्त्रीय संगीत की भी शिक्षा ली थी । वे खेल- कूद जैसी शारीरिक गतिविधियों में भाग लिया करते थे।
उन्होंने पश्चिम के दर्शन,तर्कशास्त्र का भी अध्ययन किया था। वे हर्बर्ट स्पेंसर के विकासवाद से काफी प्रभावित थे उन्होंने स्पेंसर की पुस्तक ऐजुकेशन का बंगाली भाषा में अनुवाद किया था। वे ब्रह्म समाज से बहुत प्रभावित थे। ब्रह्म समाज एक निराकार ईश्वर में विश्वास तथा मूर्तिपूजा का विरोध करता था।
बह्म समाज ने ही उन्हें धर्मशास्त्र, अद्वैतवादी अवधारणाओं, वेदान्त और उपनिषदों को सुव्यवस्थित, युक्तिसंगत ढंग से अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया।
सन 1881 में उनकी भेंट रामकृष्ण परमहंस से हुई जिनसे वे अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरू बना लिया। रामकृष्ण परमहंस ने उनके मन उठने वाले कई प्रश्नों का उत्तर दिये और उन्हें धर्म की शिक्षा दी इसके साथ ही उन्होंने धर्म के विस्तार के लिए प्रेरित किया।
रामकृण परमहंस की मृत्यु के पश्चात सन 1887 में बड़ानगर गुजरात में उन्होंने औपचारिक सन्यास ले लिया। इसके बाद उन्होंने परिव्राजक के रूप में संपूर्ण भारत का भ्रमण किया। 25 दिसम्बर को 1892 को वे कन्याकुमारी पहुंचे l
बड़ानगर (गुजरात) के राजा की सहायता से वे अमेरिका के शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन मे भाग लेने पहुँचे।
11 सितम्बर 1893 को उन्होंने शिकागों के धर्म सम्मेलन में ओजपूर्ण व्याख्यान दिया जिसके कारण वे विश्व प्रसिद्ध हो गये। उनकी वक्तृत्व शैली और ज्ञान को देखते हुए वहॉं की मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू नाम दिया।
वे लगभग तीन वर्षो तक अमेरिका में रहे। इसी दौरान उन्होंने सन 1894 को न्यूयॉर्क में वेदान्त समिति की स्थापना की। उनकी विश्व प्रसिद्धी के पश्चात उन्हें यूरोप के कई देशों द्वारा आमंत्रित किया गया।
यूरोप की यात्रा के पश्चात कोलंम्बो (श्रीलेका) से होते हुऐ वे रामनाथपुरम् (रामेश्वरम) पहुंचे जहॉं पर उनका जोरदार स्वागत हुआ।
1 मई 1897 को कोलकत्ता में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
सन 1899 में उन्होंने पश्चिम देशों की पुन: यात्रा की। ( न्यूयॉर्क, विएना, हंगरी, कुस्तुनतुनिया, ग्रीस, मिस्र आदि)
26 नवंबर 1900 को वे पुन: भारत लौटे । सन 1902 को उन्होंने बोध गया और वाराणसी की यात्रा की
4 जुलाई 1902 को उन्होंने बेलूर मठ में महासमाधि ले ली।
मुख्य तथ्य:-
- 11 सितम्बर 1893 को उन्होंने शिकागों के धर्म सम्मेलन में ओजपूर्ण व्याख्यान दिया।
- न्यूयॉर्क की मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक ( तूफानी हिन्दू) नाम दिया।
- कर्मयोग(1896),राजयोग जैसी पुस्तकों की रचना स्वामी विवेकानन्द ने की ।
- 1 मई 1897 को कोलकत्ता में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
- स्वामी विवेकानन्द सदैव व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। उनके शब्दों में '' मनुष्य कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया हैं। ''
- स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में शिक्षा क्या है '' जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है।''
- '' शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे मस्तिष्क में ऐसी बहुत सी बातें ठूँस दी जायें, जो आपस में लड़ने लगें और तुम्हारा मस्तिष्क उन्हें जीवन भर हज़म न कर सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन -निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। ''
- ''यदि तुम पॉंच ही भावों को हज़म कर तद्नुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी की पूरी लाईब्रेरी ही कण्ठस्थ कर ली है।''
- लॉस एंजिल्स, में दिये गये एक व्यख्यान में स्वामी विवेकानन्द कहते है कि '' हमारी सभी प्रकार की शिक्षाओं का उद्देश्य तो मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होना चाहिए। परन्तु इसके विपरीत हम केवल बाहर से पालिश करने का ही प्रयत्न करते हैं। यदि भीतर कुछ सार न हो तो बाहरी रंग चढ़ाने से क्या लाभ ? शिक्षा का उद्देश्य तो मनुष्य का विकास ही है।
- एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कुछ भूल जाओ ।
- उठो जागो और तब तक नहीं रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।
- पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है, फिर विरोध होता है, और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है।
- एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारों बार ठोकर खाने के बाद ही होता हैं।
Comments
Post a Comment